Sunday, October 16, 2011

मेरे कुछ प्रश्न


सन्दर्भ:       कुछ ही दिनों पहले मुंबई बम धमाकों से सारा राष्ट्र शोकविलीन था . तभी संचार माध्यमों ने एक छोटी सी बच्ची को दिखाया था . शायद वो अपने परिजनों के संग वहाँ गयी थी परन्तु धमाकों के बाद वे मिल नहीं रहे थे . इसलिए वो रो रही थी . सभी उसे शांत करने का प्रयास कर रहे थे किन्तु शायद अपनी मृत माँ को ना पाकर वो शांत नहीं हो पा रही थी . मेरी यह कविता इसी घटना से प्रेरित है .


संकुचित विचलित द्रवित विव्ह्वल सी बिखरी सी घबराई सी
बैठी थी वह भू मलीन सी श्रोणित सिंधु नहाई सी
नीर श्रोत था शुष्क हो रहा आखें थीं पथराई सी
चकित भ्रमित सी देख रही सब बेसुध सी सिथिलाई सी

कटे अंग व खंडित शव थे कोलाहल से बैहराई सी
अपने नन्ही मुठिया को भींचे कर्धन को लटकाई सी
व्याकुल नयन अति व्याकुल मन उत्तेजित सी भरमाई सी
ढूंढती अपनी मैय्या को सब में, बैठी ठगी ठगाई सी

लघु जीवन के इस रुधिर पटल पर उत्पत् कई विचार हैं
हे इश्वर तेरी सत्ता पर उठते ये जटिल प्रश्न प्रगाढ़ हैं
क्या धर्म कर्म क्या पाप पुन्य, अब अर्थहीन ये प्रकार हैं
भयशाषित जीवन का औचित्य ढूंढते सकल जीव लाचार हैं

क्या दोषी थी वह नन्ही बच्ची जिसपर हुए ये निर्मम प्रहार हैं ?
या अब ये बतलाकर बच पाओगे की ये विधि के कर्म प्रभाव हैं ?
क्या मानव है सर्वोत्तम कृति अब भी या बुद्धि जनित सब विकार हैं ?
और क्या हो अब भी तुम सर्वसमर्थ या ये बस भावुक जीव विचार हैं ?

यदि हो अभी तुम परम आत्मा तो लोचन विस्तार करो
जीव जीव से प्रेम करे अब ऐसा कोई चमत्कार करो
मानवता का स्वार्थ क्षीण हो परस्पर द्वेष न रह जाए
सुखी तब संसार सकल हो और मानव पशु न बन पाए
और मानव पशु न बन पाए

-- शिवा हर्षवर्धन चतुर्वेदी 

Saturday, February 26, 2011

स्मृतयो की झाँकी



कुछ सोच जो मन विचलित हो उठा
स्मृतयो की झाँकी सी थी
अधरों पर विचित्र मुस्कान सी थी


नयनों का जी भी भर आया
एक बदरी काली यादों की
क्रंदन करती कोपित काया



पर आँसू एक सहमा सा था
आँखों की कोर में छिपा हुआ
डरता था युहीं बह जाने
पोषित अस्तित्व मिट जाने से



कुछ सोच तभी मन विचलित सा हुआ
कण कण मेरा तब द्रवित सा हुआ
और अब वो भी आँसू बह चला है



अपना अस्तिव मिटने को
लघु जीवन सार्थक कर जाने को
अब वह भी बह चला है



आँसू ही था या सपना कोई जो टूट गया
आँसू ही था या अपना कोई जो छूट गया
आँसू ही था या तुम थी

शिवा हर्षवर्धन चतुर्वेदी

Sunday, November 21, 2010

dreadful longing of the day....



How would he know of the hopeless dark;
who was born immersed in candescent light;

He who closed his eyes not;
nor wandered out, ever at night;

And favored by thy mighty grace;
who spent his days of mirth and might;

Tonight shall be stormy, and her wisdom lamp is dead ;
And none can share her plight as me, the darkest times of fret.

Saturday, November 13, 2010

प्रकृति का वास्तविक स्वरुप


नदियां, पंछी, बादल और धुप

प्रकृति का अनुपम मोहक स्वरुप

कल-कल करता वह जल-प्रपात

भय प्रेरित करता मेघ नाद

तितली का संदीप्त मनमोहक नृत्य

वह देखो भ्रमर का उद्धरण कृत्य

सबमे है वह अलौकिक ओज प्रधान

वह प्राण संचारक तत्व समान

है सर्व प्रथक है सर्व विलीन

संसार सकल जिसके आधीन

कर अक्षय अर्पित सर्वस्व उस पर

तुम कार्य करो उत्तम पथ पर

वसुधैव कुटुम्बकम लो अब भी मान

देखो कण कण में बसते राम

आज की आपबीती




मन में पुलकित नव विचार हैं

क्षीण हो रहे सब विकार हैं

नव प्रेरणा का उदयघोष है

मन मद स्फुटित नव आक्रोष है

आशा अभिलाषा विसार है

आह्लादित होता रक्त संचार है

मन में दृढसंकल्प प्रगाढ़ है

तुच्छ प्रत्याक्ष सीमा विसार है

हरि कृपा से प्रेरित पोषित, सरल सिद्ध सब जटिल कार्य हैं

सरल सिद्ध सब जटिल कार्य हैं

Sunday, August 15, 2010

Saturday, April 3, 2010

Shall I compare thee?

Not like an aging summer 's day,
Or in few pallid lines should get,
thy alluring beauty waste away.
Or in searing gales of may
how thy frail ardor display?
And how can pages pale with time
do justice of thy magnificence sublime?

I envisage a lake of molten sapphire,
which, sprinkled twinkling stars admire.
And in the cynosure a mystic blue lotus I see,
With that shall I compare thee?

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